Thursday, April 27, 2017

North East Tour (Part-7) : Thoubal to Imphal Journey and "Eromba" A Manipuri Dish


थौबल से वापस इम्फाल लौटने की घडी आ चुकी थी, जिस तरह हम थौबल आये थे उसी तरह वापस इम्फाल के लिए निकल पड़े, कुछ किमी की दूरी तय करने के बाद हमारे पास दो विकल्प थे एक तो जिस रास्ते हम आये थे उसी रास्ते वापस इरिलबुंग होते हुए इम्फाल जाए या फिर उस राष्ट्रीय राजमार्ग पे चलते रहे जो इम्फाल को मोरे (बर्मा सीमा) से जोड़ती है, हमने नया रास्ता चुना ताकि इम्फाल के दूसरे भाग को भी देखा जा सके भले चलते– चलते ही सही, अबुंग कि लाइव कमंट्री फिर शुरू हो गयी थी, वो बताता जा रहा था और मैं सुनता जा रहा था, रास्ते में हमे कुछ बस्तियां नज़र आयी, अबुंग ने कहा ये सारी बस्तियां अवैध हैं और राजनीतिक संरक्षण के चलते इनका कोई कुछ नही बिगाड़ सकता, ये आउटर इम्फाल का वह भाग है जहाँ सबसे ज्यादा बंद व दंगे होते हैं, कुछ और किमी कि दूरी तय करने के बाद हमने आउटर इम्फाल का ही एक छोटा सा टाउन क्रॉस किया अबुंग ने उसके बारे में बताते हुए कहा कि यह मणिपुर का रहस्यमयी इलाका है जहाँ चोरी का सामान पता नही कैंसे समा जाता है, यहाँ पुलिस भी आने में कतराती है और आपकी गाड़ी चंद मिनटों में यहाँ से गायब हो सकती है | ये सारी बातें अबुंग चलते-चलते बताता जा रहा था और साथ ही वो मुझे उन रास्तों को भी इशारों से बता रहा था जिनसे हम कम से कम समय में इरिलबुंग पहुँच सकते थे |

इम्फाल में मुझे और भास्कर दा को दो अलग-अलग घरों में भोजन के लिए जाना था, भास्कर दा आशा रानी दीदी के घर भोजन के लिए जाने वाले थे लेकिन भास्कर दा उनके घर का रास्ता नही जानते थे और हम चारों में स्थानीय रास्तों कि जानकारी अबुंग से ज्यादा किसे होगी ये बताने वाली बात नही है इसलिए अबुंग मुझे साथ लेकर सबसे पहले भास्कर दा को आशा दीदी के घर तक छोड़ने गया, वैसे भास्कर दा इतनी जल्दी में थे कि वो हम से पहले निकल गए थे लेकिन जा पहुंचे कहीं ओर, मैं और अबुंग रास्ते में उनका इंतज़ार करते रहे, उनका फ़ोन लगाते रहे लेकिन नेटवर्क प्रोब्लम के कारण बात नही हो पाई तो हम सीधे आशा दीदी के घर जा पहुंचे, थोड़ी देर बाद जैसे तैसे भास्कर दा भी वहां आ पहुंचे, आशा दीदी भी मेरे से भोजन करने की जिद करने लगी तो मैंने आकर खाने को कहा, फिर अबुंग मुझे लेकर निकल पड़ा भाभी के माइके वाले घर में जहाँ उनकी छोटी बहन हमारा इंतज़ार कर रही थी, जो अपने माँ पिताजी के साथ इम्फाल में रहती हैं, वैसे तो वो दिल्ली में ही रहती थी लेकिन पिछले महीने ही दिल्ली से वापस मणिपुर में आकर अपना काम कर रही हैं, वो पेशे से अर्केटेक्ट हैं | भाभी शादी के बाद  से भैया के साथ सहारनपुर में रहती हैं और दोनों दांतों के डॉ हैं | अपनी डाक्टरी कि पढाई के दौरान ही दोनों का प्यार परवान चढ़ा और एक दूसरे के साथ विवाह-सूत्र में बंध गए, उनके दो बच्चे हैं | खैर 12 बजे के बदले हम डेढ़ बजे घर पे पहुँच ही गए, भूख भी जोरों कि लगी थी, भाभी कि बहन से में आज पहली बार मिल रहा था, लेकिन हम फेसबुक और फ़ोन से एक दूसरे से जुड़े रहे हैं, दिल्ली में कई बार मिलने की सोची पर मिलना नही हो पाया था, मेरे उनके घर में पहुँचते ही भाभी के मम्मी-पापा मेरे से मिलने आ गये, मम्मी से मेरी कम ही बात हो पाई लेकिन पापा से काफी बात हुई, इम्फाल में हम जिनके घर में रुके थे वो उनसे भलीभांति परिचित थे, मेरे से हिंदी में बात हो रही थी और अबुंग से मणिपुरी में, चाय के लिए हमने मना कर दिया था तो पहुँचने के कुछ देर बाद ही हमारे लिए भोजन परोसा जाने लगा, दाल, चावल, आलू गोभी कि सब्जी, बीन्स कि सब्जी, चिकेन और मछली कढ़ी और इरोम्बा से खाने की मेज पट चुकी थी, केवल रोटी कि कमी थी वरना पूरा खाना लगभग उत्तर भारतीय ही था बस इरोम्बा को छोड़ दें तो..

इरोम्बा मणिपुर का प्रमुख, प्रसिद्ध व सबसे पसंदीदा व्यंजन है, किसी भी मणिपुरी के सामने इसका जिक्र करो तो स्वाभाविक ही उसके मुह में पानी आ जायेगा, लोगों से सुनी बातों के आधार पर इस व्यंजन से मेरा परिचय तो था लेकिन आज इसे चखने का पहला मौका भी था | चूँकि मै उत्तर भारत से हूँ तो हमारे लिए इसे बनाते वक्त इस बात का बहुत ध्यान रखा गया था और यही वजह थी कि इरोम्बा की सबसे मुख्य सामग्री नगारी यानि किण्वित मछली (fermented fish) को इससे दूर रखा गया था और हमारे लिए भाभी कि मम्मी ने खुद शुद्ध शाकाहारी इरोम्बा बनाया गया था, भाभी कि बहन को अंदेशा था कि मुझे नगारी कि खुशबू अच्छी नही लगेगी इसलिए उन्होंने इसे डालने को मना कर दिया था, मैंने एक कटोरी में थोडा सा इरोम्बा लिया और खाने के साथ थोडा-थोडा करके खाने लगा, स्वाभाविक था कि ये मेरे स्वादअनुसार तो नही था लेकिन ये इतना भी बुरा नही था कि मैं इसे खा न सकूँ, सबकी अपनी–अपनी खान-पान कि शैली होती है और हमे उसको पूरा सम्मान देना चाहिए, इधर मैं एक कटोरी इरोम्बा से ही छक गया था उधर अबुंग इरोम्बा को तबियत से पैले जा रहा था, मै भी खुश था कि उसने मेरे बदले का इरोम्बा भी चट कर दिया था, वरना उसे फेंकना पड़ता क्योंकि मणिपुरी लोग खाने को एक पहर से दूसरे पहर के लिए बचाके नही रखते और खाना फेंकना मुझे बिलकुल भी पसंद नही है |


"Eromba" A Manipuri Dish, Photo Source-Google
इरोम्बा कि सामग्री व बनाए जाने कि विधि – असली इरोम्बा बनाने के लिए थोडा उबले आलू, उबली हुयी हरी सब्जियां जैसे भिन्डी, बीन्स, सेम आदि के साथ नगारी यानि किण्वित मछली (fermented fish) और सुखी लाल मिर्ची कि जरूरत होती है, इन सबको एक बर्तन में एक साथ मसलकर मिलाया जाता है जिससे उसकी चटनी बन जाती है और यदि नकली यानि शाकाहारी इरोम्बा बनाना है तो इससे केवल मछली हटा दो तो शाकाहारी इरोम्बा बन जायेगा | इरोम्बा में नगारी का इस्तेमाल महत्वपूर्ण होता है और इसको बनाए जाने कि भी अपनी एक अलग ही विधि है, नगारी मणिपुर व पूर्वोत्तर राज्यों का एक महत्वपूर्ण भोज्य उत्पाद है जोकि मछली को धुप में बिना नमक के सुखाया जाता है, जिससे मछली को घर में लम्बे समय तक रखा जा सकता है, इसको बनाये जाने कि विधि थोड़ी जटिल और स्वाद अनुसार पूर्वोत्तर राज्यों में अलग-अलग है, नगारी 10 से 15 दिन में तैयार होती इसलिए अभी में इसकी विधि में नही जाना चाहता............................|

Fermented Fish, (Photo Source - Google)
खाना खाके हमारा पेट भर चुका था और आलस हम पर हावी हो रहा था, लेकिन आज ही हमारा मोइरांग जाने का भी प्रोग्राम बन गया था, मोइरांग जाने कि खबर सुनकर भाभी कि बहन ने मुझे वहां लोकटक लेक घूम आने को कहा मैंने भी कहा ठीक है, खाना खाने के बाद आधे घंटे और बैठने के बाद मैंने और अबुंग ने वहां से विदा ली, जाते-जाते भाभी की बहन ने हमे आंवला और जैतून के ताज़ा अचार के कुछ पैकेट थमा दिये जोकि कुछ दिन पहले ही बनाये गये थे और खाने के लिए एकदम तैयार थे | वहाँ  से निकलकर हम सीधे आशा दीदी के घर जा पहुंचे जहाँ भास्कर दा हमारा इंतज़ार कर रहे थे, वहां उनके एक मित्र कार लेकर आने वाले थे जो हमे मोइरांग लेके जाने वाले थे, आशा दीदी के घर पहुँचने के कुछ ही देर बाद भास्कर दा के मित्र भी आ गए थे, उनसे मेरी मुलाकत मणिपुर में पहले ही दिन एअरपोर्ट पर हो चुकी थी इसलिए मुझे उनसे परिचय करने कि अलग से कोई जरूरत नही पड़ी क्योंकि भास्कर दा ने उनको मेरे बारे में गुवाहटी एअरपोर्ट पर ही बता दिया था और मणिपुर एअरपोर्ट में जब हम मिले तो वो पहले ही जिद कर चुके थे कि वो मुझे इम्फाल और मोरे घुमाने ले जायेंगे लेकिन हमने समय कम होने कि वजह से उनको मना कर दिया था लेकिन वो फिर भी न माने और आज हमे मोइरांग लेके जा रहे थे, वैसे अंधे को क्या चाहिए था..........  समय कम था इसलिए हम इम्फाल से सीधे मोइरांग के निकल पड़े ........................| शेष अगली पोस्ट में ............

इम्फाल से मोइरांग और मोइरांग के लोगों के बीच का अनुभव मैं आपसे अपनी अगली पोस्ट में साझा करूँगा | जिन्होंने अभी तक मेरी मणिपुर यात्रा कि पूर्व में लिखी पोस्ट को नही पढ़ा है वो नीचे दिये लिंक पर क्लिक करके इन पोस्ट को शुरुआत से पढ़ सकता है, --------

Thursday, April 13, 2017

रहस्य द लैंड ऑफ़ ज्वेल (The Land of Jewel) नाम का और इरिलबुं से थौबल तक का सफर

आज मणिपुर में हमारा तीसरा दिन था, हम थोडा जल्दी उठ गए थे क्योंकि आज हमारा घुमने का प्लान था, इसलिए समय से नहा धोकर तैयार हो चुके थे, आज मेरी किस्मत भी अच्छी थी जो मुझे नहाने के लिए गर्म पानी मिल गया था, कल पूरे दिन छींके आने से अबुंग को लगा कि मुझे ठन्डे पानी में नहाने के कारण सर्दी लग गयी तो सुबह जैसे ही में बाथरूम कि और गया अबुंग पता नही कहाँ से एक बाल्टी में गर्म पानी लेकर आ गया था | सुबह 9 बजे से पहले ही नहा धोकर मै और भास्कर दा घर से निकलने के लिए तैयार थे, अब हम इंतज़ार कर रहे थे उस शख्स का जो हम को ले जाने के लिए गाड़ी लेकर आने वाले थे | घर से निकलने में थोडा वक़्त लगेगा जानकर मैंने सोचा क्यों न थोड़ी देर सोशल मीडिया में अपनी इम्फाल यात्रा के कुछ फोटो ही अपलोड कर लूँ, कल मैंने जो फोटो लीं थी उनमे से मैंने कुछ फोटो को मैंने छांट तो लिया लेकिन अपलोड करते समय एल्बम के नाम को लेकर अटक गया, मै एल्बम का नाम कुछ यूनिक रखना चाहता था जो मणिपुर को प्रस्तुत करता हो और कॉमन भी न हो, जिससे लोगों के मन में इसके प्रति रूचि जगा सके, काफी देर सोचने के बाद जब दिमाग काम नही किया तो मैंने भास्कर दा से पूछा कि जैंसे अरुणाचल को The Land of Rising Sun कहते हैं वैसे ही मणिपुर का भी तो कोई ऐसा नाम, उपनाम होगा, तो उन्होंने कहा कि हाँ ज्वेल करके कुछ है, बस मुझे हिंट मिल गया था तो मैंने Google बाबा कि मदद से मणिपुर का उपनाम ढूंड ही लिया.... The Land of Jewel A Jeweled land” मणिपुर को The Land of Jewel कहने के पीछे का कारण है इसका अंडाकार भू-भाग जोकि चारों ओर से 9 पहाड़ियों ने घिरा हुआ है, देश के प्रथम प्रधानमंत्री जब मणिपुर गए तब उन्होंने इसको The Jewel of India' कहा था तब से इसे इस नाम से भी जाना जाता है, मैंने फेसबुक में Jewel of India (The Land of Jewel) नाम से एल्बम बनाई और कुछ फोटो उसमे अपलोड कर दिये |

इधर समय 10 के पार हो चुका था और उन महाशय की कोई खबर नही थी, शायद वो कहीं अटक गए थे, जोकि यहाँ कोई बड़ी नही थी, वैसे भास्कर दा ने विकल्प ढूढने शुरू कर दिये, अबुंग और विसेश्वर दा ने तय किया कि हम दोनों को दो टू-वीलर से ले जाया जायेगा, मैने अबुंग के साथ बाइक पर कब्ज़ा जमा लिया और भास्कर दा स्कूटी पे एक और नौजवान साथी संतोष के साथ चल पड़े, मै बहुत समय से मोटर साइकल से कहीं गया नही था तो मै काफी उत्साहित था, 11 बजे के लगभग हम लोग घर से निकले, घर से निकलते ही सबसे पहले अबुंग ने इरिलबुंग बाज़ार में बाइक को सड़क किनारे स्टूल के पास रोका जिसके ऊपर पेट्रोल से भरी कुछ बोतलें रखी थी, मै समझ गया कि वो बाइक में तेल भरवाना चाहता है, बाइक खड़ी कर वो सीधे दुकान के अन्दर गया और शायद उसने तेल का मूल्य पूछा फिर बाहर आ कर उसने हमे बताया कि आज पेट्रोल सस्ता है इसलिए दो लीटर डाल देते हैं अबुंग ने 110 के हिसाब से चार बोतल 440 में खरीद कर दोनों गाड़ी में दो-दो बोतल उड़ेल दी, मणिपुर में पेट्रोल इतना सस्ता क्यों था ये जानने के लिए आपको मेरी पुरानी कुछ पोस्ट को पढना पड़ेगा जिनका लिंक लेख के अंत में रहेगा | गाड़ियों का पेट भरने के बाद हम अपनी मंजिल कि ओर बढ़ चले, मुझे नही पता था कि हम जा कहाँ रहे थे, आज अबुंग सारथी था और मै सवारी |


बाइक चलाते वक़्त अबुंग अपनी धुन में था और मैं अपनी, बीच-बीच में वो अपनी धुन से बाहर निकल कर किसी ओर अपने हाथों से इशारा करके उस जगह या वस्तु के बारे में बताते हुए बाइक चला रहा था और कभी-कभी मैं रास्ते कि ख़ामोशी को तोड़ते हुए अबुंग को कुछ पूछ लेता था, चलते-चलते अबुंग ने कहा तामो (बिसेश्वर दा) का ससुराल आ गया, मुझे लगा कि शायद हम यहाँ थोड़ी देर रुकेंगे लेकिन हम आगे बढ़ गए, मैंने अपना मोबाइल फ़ोन निकालकर फेसबुक लाइव कर दिया था ताकि मेरे वो मित्र जो पूर्वोत्तर से दूर हैं वो भी मेरे साथ यहाँ कि जिंदगी कि कुछ झलक देख लें, सड़क भले ही दोनों किनारों पर बांस व लकड़ी के घरों से घिरी हुई थी लेकिन वहाँ एक आलौकिक शांति छाई थी, लगभग हर घर के पास एक पानी का तालाब था जोकि पूर्वोत्तर में जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग होता है, तालाब के पानी से कुछ महिलाएं नहा रही थीं, कोई कपड़े धो रहा था तो कोई बर्तन, दो चार लोग बांस से बने घर के बाड़े के पास खड़े होकर आपसी बातचीत में व्यस्त थे | हमारे सामने कि सड़क से आते हुए कुछ लोगों को देखकर अबुंग ने कहा कि शायद कोई मर गया है ये लोग उसका क्रियाकर्म से लौट रहे हैं, कुछ दूर जाने पर उसका अंदाज़ा सटीक निकला लेकिन मुझे नही पता कि अबुंग ने किस आधार पर ये बात कही थी | थोडा और आगे जाने पर अबुंग ने इशारा करते हुए कहा नीरज भाई यहाँ से मेरा घर पास है ये मेरे गाँव का रास्ता है, इतने में भास्कर दा स्कूटी में रेस देते हुए हमारे बगल में आके मुझे कहने लगे नीरज अबुंग यहाँ से इरिलबुंग तक कई बार साइकल से आता था और जब कोई अलगाववादी या कोई और संगठन बंद कि घोषणा कर देता था तो ये पैदल ही चल देता था, थांग-टा के प्रति इसका समर्पण गजब का है |

10-12 किमी चलने के बाद भी जब गाड़ी के चक्के नही रुके तो मैंने पूछ ही लिया कि हम जा कहाँ रहे हैं फिर मुझे पता चला कि हम थौबल जा रहे है जो एक छोटा सा टाउन है और थौबल जिले का मुख्यालय है, यहाँ भास्कर दा को अपने कुछ मित्रों से मिलना था और मै घर में बैठकर क्या करता इसलिए इनके पीछे मै भी लद गया था |

थौबल जाते समय रास्ते में हमे छोटी–छोटी पहाड़ियों पर अनानस कि खेती दिख रही थी और मुझे बताया गया कि यहाँ का अनानस का स्वाद बेहतरीन है और शायद भारत का ये इकलौता राज्य है जहाँ किसी फल को केन्द्रित कर उसके नाम से ‘अनानस उत्सव’ (Pineapple Festival) मनाया जाता होगा | जिस युद्ध के कारण पौना ब्रजबासी अमर हो गये थे वो खोंगजोम का युद्ध इसी जिले में लड़ा गया था, लगभग 15 किमी चलने के बाद जब हम मुख्य सड़क से मिले तो मुझे पता चला कि जिस सुनसान सड़क से हम आ रहे थे असल में वह इम्फाल का पिछला भाग था, मुख्य सड़क में आने के बाद शहर कि वही भीड़-भाड़ भरी दौड़-भाग यहाँ भी महसूस हो होने लगी थी, इस सड़क पर चलते-चलते हम मोरे यानि बर्मा तक जा सकते थे लेकिन हम केवल थौबल तक ही जाने वाले थे, सड़क किनारे कुछ महिलाएं दुकान लगाकर सामान बेच रही थी, जिसमे लोकल सब्जियां, अनानस, अन्य फल आदि थे, हम थौबल के लिए आगे बढ़ते ही जा रहे थे, 45 मिनट का सफ़र तय करने के बाद हम थौबल के बाज़ार में पहुँच गए थे, यहाँ केवल हमे कुछ लोगों से मिलना था और यहाँ घुमने का हमारा कोई इरादा नही था और वैसे भी खोंगजोम वार मेमोरियल (इसके बारे में पढने के लिए आप मेरी इस पोस्ट पर क्लिक करें पूर्वोत्तर यात्रा: मणिपुर में पहला दिन, पौना बाज़ार और हेजिंग्पोट की तैयारियां) के अलावा जिला मुख्यालय और आस-पास में ऐसी और कोई जगह थी भी नही जहाँ जाये बिना मैं न रह सकूँ साथ ही हमारे पास समय भी कम था तो जल्दी से लोगों को मिलके इम्फाल वापस जाने कि योजना थी, मै भी यहाँ लोगों से घुलना मिलना ज्यादा उचित समझ रहा था, क्योंकि हर जगह के मनुष्य की प्रकृति भिन्न होती है जिसको समझना बेहद आवश्यक है, प्रकृति कि अपनी प्रकृति लगभग सभी जगह एक समान ही होती है भले ही उसका स्वरुप कितना ही भिन्न क्यों न हो उसके नियम एक होते हैं जिसको समझना बेहद आसान होता है शायद मेरे विचार में केवल .....खैर हम थौबल के मुख्य बाज़ार में पहुँच चुके थे, बाज़ार में हर वो आधुनिक सामान मौजूद था जो आज किसी भी तेजी से विकास कर रहे शहर के लिए आवश्यक होती है, थोडा रास्ते कि भूल-भुलैया में भटकने के बाद आखिरकार हम लोग अपने गंतव्य तक पहुँच चुके थे, जोकि एक स्कूल था और यहाँ पहुँचने से थोडा पहले ही हमे दौड़ते हुए 100-150 बच्चों कि टोली मिली थी जिसे देककर अबुंग बोल पड़ा लो हम सही जगह पहुँच गए हैं, वो इसी स्कूल के बच्चे थे और इंटरवल में धमाल करने जा रहे थे, कहाँ ? ये नही पता, हम लोग एक पब्लिक स्कूल के अन्दर दाखिल हुए, भास्कर दा को जिन महाशय से मिलना था वे स्कूल के संस्थापक व व्यवस्थापक के साथ-साथ वो एक शिक्षक भी थे, जिन्होंने अपनी मेहनत से इस स्कूल को स्थापित किया था, उनसे मिलाने के लिए हमे एक क्लास रूम में ले जाया गया जहाँ वो बच्चों को पढ़ा रहे थे, हमसे मिलने के बाद उन्होंने बच्चों से हमारा परिचय करवाकर भास्कर दा को बच्चों के साथ संवाद करने का न्योता दे डाला, भास्कर दा भी कहाँ पीछे रहने वाले थे, बिन योजना के वो कई घंटे लोगों के साथ संवाद कर सकते थे ये तो बच्चे ही थे, जितनी देर वो बच्चों से संवाद करते रहे मै वहां क्लास रूम में  मौजूद चीजों को स्कैन करने में और उनकी तस्वीरें उतारने में व्यस्त था, मेरे लिए क्लास रूम थोडा अजीब थी वो इसलिए कि यहाँ रूम में दाखिल होने के लिए दरवाजा तो था लेकिन इसके पीछे कि दीवार खुली थी, शायद नया कंस्ट्रक्शन था इसलिए क्लास रूम में केवल तीन तरफ कि दीवारें ही मौजूद थी, क्लास रूम में मेरे लिए एक और बात गौर करने वाली थी वो ये कि यहाँ लड़कों के कानों में भी कुंडल होते हैं जोकि फैशन के लिए नही बल्कि यहाँ कि संस्कृति की निशानी थी |


बच्चों के साथ आधे घंटे बात करने के बाद हम लोग क्लास रूम से बाहर निकल कर स्कूल कि अन्य क्लास रूम से रूबरू होने चल दिये, मुझे डर था कि कहीं किसी और क्लास में भी भास्कर दा को कुछ बोलने को कहा जायेगा तो ये मना तो करेंगे नही लेकिन मुझे इम्फाल में किसी को मना करना पड़ेगा जहाँ आज मेरा लंच करने का प्रोग्राम था, और वो बार-बार मेसेज करके पूछ रहे थे कहाँ पहुंचे,  लेकिन ऐसी नौबत नही आयी, लगभग 10 मिनट में हम पूरा स्कूल घूम लिए थे, स्कूल घुमने के बाद मुझे यहाँ जिस चीज़ कि कमी महसूस हुई वो थी बच्चों के लिए प्ले ग्राउंड की, वैसे यहाँ जगह कि बहुत कमी थी, केवल किताबी शिक्षा ही बच्चों के लिए पूरी नही होती इसके साथ-साथ शारीरिक शिक्षा भी उनके विकास के लिए जरूरी होती है लेकिन मुझे यहाँ इसकी कोई व्यवस्था नजर नही आ रही थी, थोड़ी देर बाद जब हमे स्कूल से थोड़ी दूर स्कूल के ही दूसरे भाग में ले जाया गया तो मुझे मेरे दो सवालों का जवाब मिल गया था पहला ये कि जब हम यहाँ आये थे तो वो बच्चे कहाँ जाने के लिए दौड़ रहे थे और दूसरा ये कि स्कूल के बच्चे कहाँ खेलते होंगे, स्कूल के इस दूसरे भाग में बहुत जगह थी जहाँ छोटे बच्चे खूब खेल सकते थे लेकिन बड़े बच्चों के लिए फिर भी मुझे कोई माकूल जगह नही दिखी रही थी, स्कूल के इस दूसरे भाग में छोटे बच्चों कि क्लास रूम थी, जब हम यहाँ पहुंचे तो बच्चों का इंटरवल टाइम था और बच्चे अपने आप में मस्त थे, कोई अपने टिफ़िन से दावत उड़ा रहा था कोई अपने दोस्तों के साथ खेलने में व्यस्त था, कुछ क्लास रूम में ही बैठकर मस्ती कर रहे थे, हमे देख कर कुछ बच्चे हमारे साथ आंख मिचोली का खेल खेलने लगे, स्कूल में बाहर से आये लोगों को देख कर अक्सर बच्चें उत्साहित हो जाते हैं, हम भी अपने बचपन में स्कूल में आये अजनबियों को देखकर उत्साहित हो जाया करते थे क्योंकि कई बार ये अजनबी अपने साथ कई अनोखी चीजें लेकर बच्चों के सामने प्रदर्शित किया करते थे और हमारे लिए ये एक खेल ही होता था जो हमे दूसरी दुनिया में ले जाते थे भले ही कुछ देर के लिए ही सही |


मेरे गले में लटका कैमरा बच्चों का ध्यान अपनी ओर खिंच रहा था, फोटोग्राफी और कैमरे के कारण वैसे तो मेरे बहुत सारे दोस्त बने हैं लेकिन आज एक ऐसी छोटी सी बच्ची मेरी दोस्त बनी जो भास्कर दा को देखकर गुस्सा हो रही थी, वास्तव में कुछ प्रोफेशन बहुत ही खुबसूरत होते हैं जो आपको दूसरों को खुश रखने का मौका देते हैं और मुझे ख़ुशी है कि उन कुछ खास प्रोफेशन में से एक प्रोफेशन से मै भी जुड़ा हूँ |



थौबल आने का हमारा मकसद पूरा हो चुका था और अब हम वापस इम्फाल जाने के लिए तैयार थे जहाँ कुछ लोग हमारा भोजन के लिए इंतज़ार कर रहे थे, थौबल से इम्फाल का सफ़र व उससे आगे का सफ़र अपनी अगली पोस्ट में लिखूंगा, तब तक आप मेरी पुरानी पोस्ट को पढ़ सकते हैं |