Wednesday, March 8, 2017

पूर्वोत्तर यात्रा: एअरपोर्ट से इरिलबुंग तक का सफ़र और मणिपुरी युद्ध कला ‘हुएन लाल्लोंग’ से परिचय

एअरपोर्ट से हमे घर तक ले जाने के लिए अबुंग जोकि मेरे पुराने परिचित हैं व एक बहन आयी थी, एअरपोर्ट से घर जाना और ऑटो बुक करना मुझे युद्ध जैंसा लग रहा था, हांलाकि मै तो साइड में ही खड़ा था लेकिन भास्कर दा, अबुंग, दीदी और और ऑटो वालों कि बातों से तो मुझे यही महसूस हो रहा था, एक तो आज रविवार था, सवारियों का बड़ा अभाव था ऊपर से पेट्रोल-डीजल का संकट जिस कारण ऑटो वाले मुह माँगा दाम मांग रहे थे, हम सब पब्लिक ट्रांसपोर्ट से जाने को तैयार हो गये लेकिन अबुंग अभी आता हूँ बोलकर गायब हो गया और जब लौटा तो एक ऑटो साथ लेकर लौटा, उसे बिलकुल भी अच्छा नही लग रहा था कि हम यहाँ की बसों में धक्का खाए |

मैं, भास्कर दा और दीदी ऑटो में बैठ गए, अबुंग बाइक लेकर आया था सो वो उसमे चल पड़ा | रास्ते में चलते हुए भास्कर दा ने दीदी से परिचय करवाया, मेरा उनकी छोटी बहन से पहले से थोडा बहुत परिचय था | फिर वो दोनों आपस में बात करने लगे, मुझे नयी जगह में बोलना कम ही पसंद है, इसके बजाय मै सुनना ज्यादा पसंद करता हूँ, अपने इस स्वभाव के कारण में चुप ही था | लेकिन चुप रहने कि एक और वजह थी और वह वजह थी मेरे मन का संशय, एक तो में हिंदी भाषी था ऊपर से शक्ल और सूरत से साफ लगता था कि मै हिंदी भाषी हूँ और मेरे मन में कई सुनी-सुनाई बातें घूम रही थी, मणिपुर के इतिहास में एक समय ऐसा भी था जब यहाँ उग्रवादियों ने हिंदी व हिंदी भाषियों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था, उस दौरान हिंदी भाषियों को काफी संकटों का सामना करना पड़ा था, उग्रवदियों के हाथों कई लोगों को अपनी जान भी गवानी पड़ी थी, लेकिन केवल हिंदी भाषियों ने ही उग्रवादियों के हाथों अपनी जान गँवाई हो ऐसा भी नहीं था, उग्रवादियों ने कई स्थानीय लोगो को भी मौत के घाट उतार दिया था, इसलिए मै चुप-चाप बैठे रहने में ही भलाई महसूस कर रहा था, लेकिन भास्कर दा तो हिंदी में ही अपनी गप्पे पेले जा रहे थे, एक तो वो पूर्वोत्तर के थे और शक्ल सूरत से मणिपुरी ही लगते थे जबकि वो ठेरे असमिया, वैसे हिंदी में बात करना उनकी भी मजबूरी थी क्योंकि उनको कौन से मणिपुरी आती थी या उन दीदी को ही कौन से असमिया आती थी | अब मणिपुर में काफी संख्या में हिंदी को जानने वाले लोग मिल जायेंगे, जिसके मुझे दो कारण पता चले, पहला हर घर में DTH के माध्यम से हिंदी सिनेमा व नाटकों ने अपनी जगह बनायीं है, दूसरा अच्छे रोजगार, शिक्षा व उपचार के लिए लोगों का मणिपुर से बाहर आना जाना काफी बढ़ा है |

मै भास्कर दा व दीदी की बातचीत को ध्यान से सुन रहा था और अपने कानों को उनकी बातों में घुसा कर बाहर के नज़ारों को ध्यान से देख रहा था, एअरपोर्ट से हमे घर तक लगभग 13 किमी चलना था और पूरे रास्ते में चलते हुए मुझे अजीब सा लग रहा था, सारे पेट्रोल पंप बंद पड़े थे, एक भी दुकान खुली नज़र नही आ रही थी, बस कुछ महिलाएं हर 300-400 मीटर कि दुरी पर 1-2 लीटर कि बोतलों में पेट्रोल भरकर बैठी थीं, मेरा संशय और बढता मैंने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए पूछ ही लिया कि क्या बात है जो रास्ते में हमे एक भी दुकान खुली नज़र नही आयी, सब कुछ बंद क्यों है ? जिसका सामान्य सा जवाब था कि आज रविवार है और रविवार के दिन यहाँ का बाज़ार पूरा बंद रहता है, ये सुनकर मेरे मन में उठ रहे नकारात्मक विचार को विराम मिलना ही था | 

रास्ते में भास्कर दा ने मुझसे पूछा सोचो पूर्वोत्तर से बाहर जब ये पता चले कि एक कल्चरल यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर एक लड़की को घर से भगा के ले गया है तो क्या होगा ? मैंने कहा ये तो हमारे इधर बहुत बदनामी कि बात होगी तो भास्कर दा बोले लेकिन मणिपुर में अगर शादी करनी है तो लड़का-लड़की को घर से भागना पड़ता है, यहाँ अरेंज मैरिज उनकी होती है जिनकी शादी में मुश्किलें आती हैं  या ये कहें कि जिनकी शादी ना हो पा रही हो, फिर भास्कर दा बिशेश्वर दा कि शादी के पीछे की कहानी बताने लगे, ‘एक दिन उनके पास बिशो का फ़ोन आया और बोला भास्कर हम मै तो फंस गया, मैंने जब पूछा कि क्या हुआ तो बिशो बोला मुझे लड़की ने घर से भाग के ले गया है और अब तो शादी करना पड़ेगा | वैसे लड़की और बिशो दोनों एक दूसरे को बच्चपन से जानते हैं और दोनों ही एक दूसरे को पसंद भी करते थे लेकिन घर में शादी को लेकर थोडा इस लिए विरोध था क्योंकि लड़की क्षत्रिय थी और ये ब्राह्मण |

खैर ऑटो से आधे घंटे में हम इरिल्बुंग नदी से सटे अपने गंतव्य स्थान पर पहुंच गए थे जहाँ बिशो (श्री बिसेश्वर शर्मा जी) हमारा इंतज़ार कर रहे थे, भास्कर दा कि कई कोशिशों के बावजूद भी उन्होंने हमे ऑटो का किराया नही देने दिया, उन्होंने मणिपुरी में ऑटो वाले से पता नही क्या कहा कि उसने भी हमसे पैसे लेने से मना कर दिया, हमे व हमारे सामान को अन्दर ले जाया गया, मेरी भटकती नज़रें कमरों कि दीवारों में अपनी मतलब कि चीजें ढूंडने लगी थी, इसी खोज के दौरान मेरी नज़र दीवार में टंगे कुछ चित्रों व एक प्रशस्ति पत्र पड़ी, जिससे मुझे पता चला कि अगले 4-5 दिन हम जिस घर में रुकने वाले हैं ये घर पदमश्री स्वर्गीय श्री गुरुमयूम गोर किशोर शर्मा (गुरूजी) का है और बिशेस्वर जी उनके सबसे छोटे बेटे हैं जिनकी शादी के लिए हम यहाँ आये हैं |

गुरूजी को भारत सरकार ने 2009 में कला क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हें पदमश्री से नवाज़ा था, गुरूजी ने अपना पूरा जीवन मणिपुर के प्राचीनतम व पारंपरिक मार्शल आर्ट “हुएन लाल्लोंग” (जिसे आज थांग-टा नाम से भी जाना जाता है) के लिए समर्पित कर दिया था, श्री गुरुमयूम गोरकिशोर जी ने थांग-टा के प्रचार-प्रसार व युवाओं को इसकी शिक्षा देने के लिए 25 अक्तूबर 1958 में मणिपुर का पहला शिक्षण केंद्र इरिलबुंग में स्थापित किया, जिसका नाम उन्होंने Huyen Lallong Manipur Thang-Ta Cultural Association रखा | इस संस्थान के माध्यम से न जाने कितने युवाओं ने थांग-टा का प्रशिक्षण प्राप्त किया होगा और न जाने कितने प्रशिक्षित युवाओं ने देश-विदेशों में अपने कौशल का प्रदर्शन किया होगा | 2009 में गुरूजी को पदमश्री मिलने के बाद मणिपुर की सरकार ने भी बच्चों को पढ़ाने के लिए थांग-टा को स्कूल के कोर्स में शामिल कर दिया |

“हुएन लाल्लोंग” मणिपुर की  प्राचीनतम व पारंपरिक युद्ध कला है जोकि आज थांग-टा के नाम से ज्यादा प्रचलित है, लेकिन थांग-टा हुएन लाल्लोंग का एक भाग है जिसका मतलब क्रमश तलवार व भाला होता है और इसमें किसी को शक नही हो सकता है कि युद्ध कि कला “हुएन लाल्लोंग” कि शिक्षा में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है | थांग-टा में पौशाकों का उपयोग, हाथों व पैरों कि गति, भाले से युद्ध करना, भाले के साथ खेलना, तलवार से युद्ध करना, तलवार व भाले का युद्ध और ककड़ी को काटने कि कला सिखाई जाती है |


ब्रिटिश राज ने मणिपुरी योधाओं व उनके पराक्रम के भय से 1891 में हुएन लाल्लोंग पर पूर्ण रूप से प्रतिबन्ध लगा दिया था, लेकिन यह गुरूजी जैसे लोगों की अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा व पराक्रम का ही नतीजा था कि युद्ध कि यह प्राचीनतम कला आज भी जीवित है और कई लोगों को आज रोजगार मुहैया करा रही है | 

शेष आगे अंक में .....

यात्राओं के दौरान मेरे द्वारा लिए गए चित्रों को आप मेरी फेसबुक प्रोफाइल परिव्राजक नीरज या फिर आप मेरे फेसबुक पेज परिव्राजक फोटोग्राफी पर भी देख सकते हैं |

5 comments:

  1. बहुत ही सुंदर यात्रा लिखी है।

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  2. हम्म मजा आ गया नीरज भाई👍👍

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  3. बहुद सूंदर वर्णन

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  4. मन का संशय, एक तो में हिंदी भाषी था ऊपर से शक्ल और सूरत से साफ लगता था कि मै हिंदी भाषी हूँ और मेरे मन में कई सुनी-सुनाई बातें घूम रही थी, मणिपुर के इतिहास में एक समय ऐसा भी था जब यहाँ उग्रवादियों ने हिंदी व हिंदी भाषियों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था, उस दौरान हिंदी भाषियों को काफी संकटों का सामना करना पड़ा था, उग्रवदियों के हाथों कई लोगों को अपनी जान भी गवानी पड़ी थी, लेकिन केवल हिंदी भाषियों ने ही उग्रवादियों के हाथों अपनी जान गँवाई हो ऐसा भी नहीं था, उग्रवादियों ने कई स्थानीय लोगो को भी मौत के घाट उतार दिया था, इसलिए मै चुप-चाप बैठे रहने में ही भलाई महसूस कर रहा था, लेकिन भास्कर दा तो हिंदी में ही अपनी गप्पे पेले जा रहे थे, एक तो वो पूर्वोत्तर के थे और शक्ल सूरत से मणिपुरी ही लगते थे जबकि वो ठेरे असमिया, वैसे हिंदी में बात करना उनकी भी मजबूरी थी क्योंकि उनको कौन से मणिपुरी आती थी या उन दीदी को ही कौन से असमिया आती थी |
    लडका-लडकी के भागकर शादी करने वाली बात भारत के कई इलाकों में अब भी प्रचलित है।

    ककडी काटने की कला, यह क्या है भाई?

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